स्कूल की तरफ से पेरिस शहर का भ्रमण करने निकला 10 साल का वह बच्चा अपने दूसरे साथियों की तरह एक लम्बी रस्सी पकड़कर चल रहा था। रस्सी का एक छोर स्कूल के पादरी प्रिंसिपल और दूसरा चपरासी के हाथ में तना हुआ था और बच्चों के अगल-बगल शिक्षकों कl घेरा था। 'ईश्वर ने इन बेचारों के साथ कितनी नाइन्साफी की है।’ बगल से गुजरती हुई एक बूढ़ी महिला की करूणा भरी आवाज सुनकर वह बच्चा फफककर रो पड़ा। उसके ठीक पीछे चल रहे सहपाठी गनरियल ने उसे ढांढस देते हुये कहा 'रो मत लुई ब्रेल, हम अन्धेे सही पर इतने भी बेचारे नहीं हैं। हाथ का हुनर सीखने पर चर्च के बाहर भीख मांगने की नौबत नहीं आयेगी।’
यह बात आज से लगभग दो शताब्दी पुरानी है, जब नेत्रहीन होने का मतलब जानवरों की तरह हल या गाड़ी में जुतना अथवा भिखारी की ज़िन्दगी बिताना होता था। यही दुर्भाग्य फ्रांस के छोटे से कस्बे कूपटवे में रहने वाले नन्हे लुई पर टूटा था। तीन साल की उम्र में पिता साईमन ब्रेल के चमड़े के कारखाने में खेलते हुए लुई की आंखों में सूजा घुस गया। दोनों आंखों में फैले संक्रमण से उसकी देखने की क्षमता जाती रही। छड़ी से रास्ता टटोलते हुए नन्हा लुई चर्च में जाकर बैठता और बूढ़े पादरी से तमाम किस्से सुनता। पादरी की सिफारिश पर उसे कस्बे के स्कूल मेें दाखिला भी मिल गया, लेकिन जब हाजिरी के बाद शिक्षक ने बच्चों से कहा, 'कविता की किताब का पन्ना नम्बर 4 खोलो और सब साथ मेेें पढना शुरू करो’ तो लुई का दिल बैठ गया। वह पन्ने पर उंगलियां फिरा रहा था, लेकिन वहां उसे अपने आँसुओं के सिवा कुछ ना मिला।
परिवार और पादरी की कोशिशें रंग लाईं और काफी मुश्किलों के बाद लुई को फ्रांस के इकलौते अंध विद्यालय में दाखिला मिला। राॅयल इंस्टीट्यूट फाॅर द ब्लाइंड नामक यह स्कूल राजधानी पेरिस में था। लगभग सौ अंधे बच्चों के साथ वह स्कूल की वर्कशाप में बुनाई और चमड़ा सीने का काम सीखने लगा। तेजी से हाथ का हुनर सीखने के बाबजूद उसका मन उदास रहता था। वह पढ़ना चाहता था, उस स्कूल के बच्चों की तरह, जहां उसके आँसुओं ने किताबों की स्याही को धुंधला कर दिया था। ऐसा नहीं था कि तब तक नेत्रहीनों के लिए पुस्तकें बनाने की कोशिशें नहीं हुई थीं पर वे इतने बेढंग प्रयास थे कि उनका होना या न होना बराबर ही था। तब लकड़ी के बड़े गुटकों, मोम आदि से मोटे-मोटे अक्षर बनाये जाते थे, नतीजन किताब के एक पन्ने पर (अगर आप चमड़े की जिल्द की हुई परतों को किताब मान सकें तो) बमुश्किल तीन-चार शब्द आ पाते थे। सबसे बड़ी बात इनका अधिक संख्या में ’प्रकाशन’ लगभग असंभव था। होता भी तो ’बेचारा’ कहलाने वाले नेत्रहीनों के लिए इतना सिरदर्द मोल कौन लेता ?
पर लुई ब्रेल किसी और ही मिट्टी का बना हुआ था। एक दिन चमड़े पर काम करते हुए उसने सूजे से कुछ छेद बनाए। इन छेदों का एक खास पैटर्न था। दरअसल लुई ने यह पैटर्न एक खुफिया फौजी लिपि से प्रेरित होकर बनाना शुरू किया था। इस पद्वति में फौजियों को रात के अंधेरे में छूकर पढ़ सकने के लिए उभरे हुए संकेतों का प्रयोग होता था। प्रत्येक शब्द के लिए कागज की पट्टी पर उभरा हुआ संकेत होता था, जो पढे-लिखें फौजियों के लिए तो ठीक था...पर उन नेत्रहीनों के लिए बेमतलब ही था, जिन्होनें अक्षरज्ञान तक न प्राप्त किया हो।
चमड़े में सूजे से छेद करते हुए लुई के दिमाग में एक साधारण सा विचार आया जो दुनियाभर के नेत्रहीनों के जीवन में असाधारण क्रांति लाने वाला था। उसने सोचा कि अक्षरों के लिए अलग-अलग उभरे बिन्दु संकेत बनाए जा सके तो हर शब्द के लिए संकेत की जटिल पप्रणाली समाप्त हो जाएगी । सामान्य नेत्रहीन भी इन अक्षरों को जोड़कर पाठ पढ़ सकेंगे । अब उनके जीवन में भी ज्ञान की रोशनी होगी ।
खुशी से कांपते हुये लुई ने दस मोटे कागजों की गड्डी बनाई और सूजे से छेद करने शुरू किए। शीघ्र ही वर्णमाला के 26 बिंदु संकेतकों की दस प्रतियां तैयार हो गईं और शाम तक इनकी संख्या सौ पहुंच गई। स्कूल के सभी साथियों के लिए लुई ब्रेल की वर्णमाला तैयार हो चुकी थी । जिस सूजे ने कभी उसकी रोशनी छीन ली थी, अब वही ’ब्रेल लिपि’ के रूप में दुनियाभर के नेत्रहीनों के जीवन में प्रकाश का उपकरण साबित होने जा रहा था ।
पन्द्रह साल के उस लड़के ने अपने जीवट से वह चमत्कार कर दिया था कि मात्र 19 साल की उम्र में उसे अपने ही स्कूल में शिक्षक बनने का सम्मान मिला। ’ब्रेल लिपि’ की वजह से नेत्रहीन न केवल पढ़ने, बल्कि लिख सकने में सक्षम हो सके।
तभी से नेत्रहीनों के लिए वरदान ब्रेल लिपि अंधकार में ज्ञान की यह रोशनी बिखेरने वाले लुई ब्रेल का जन्मदिन विश्व ब्रेल दिवस के रूप में 4 जनवरी को मनाया जाता है ।