Dear Diary अनुशासन एक व्यवहार परिवर्तन
By Satya Pal Singh
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हमें आजीवन अनुशासन में रहने की सीख दी जाती है । हर कोई इंसान जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ सुचारु रूप से कार्य करती हैं उसने अपने जीवन मे कई बार इस शब्द से अपने आप को रुबरु होते देखा होगा । हमारी प्रथम शिक्षक हमारी माँ से हमारे अनुशासन के प्रथम पाठ का सोपान किया जाता है । और ये अनुशासन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । जरा सा अनुशासनहीन हुए और जीवन की गाड़ी पटरी से उतर जाती है । दरअसल अनुशासन हमारे जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए । जिसने इस अमूर्त अंग को स्वीकार कर लिया उसका जीवन सफल जिसने नहीं स्वीकारा उसके जीवन में अनेक परीक्षाओं की पुनरावृत्ति होती रहती है । अनुशासन का पाठ तब आउट कठिन हो जाता है जब आप एक शिक्षक हों । एक शिक्षक के लिए एक बड़ी चुनौती हो जाती अपने बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने में । अपने बच्चों को  वह कैसे बताए कि एक अनुशासित व्यक्ति आज्ञाकारी होने के साथ साथ स्व-शासित व्यवहार का स्वामी होता है । ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ और मैं अपने बच्चों को ये पाठ पढ़ाने में काफी हद तक सफल रहा । पेश है एक अनुभव ।

 

प्रायः हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे अनुभव मिलते हैं जिन्हें दूसरों से साझा करने में एक अलग आनंद की अनुभूति होती है । ऐसी ही अनुभूति आज मुझे हो रही है अपना अनुभव इस लेख के माध्यम से आप सभी के समक्ष रखने में । पिताजी को कहते सुना था पहले खुद करो फिर दूसरों को बताओ उसे करने को । और ये उनका कहना मेरे जीवन में सफल हुआ मेरे विद्यालय के बच्चों के साथ । 

 

 

नीचे एक चित्र दिया है जिसमें मैं अपने बच्चों के साथ बैठा हूँ उसी चित्र की कहानी है ये । हुआ कुछ यूं कि विद्यालय में एम डी एम के दौरान जैसे ही घंटी बजती , वैसे ही सब बच्चे लाइन में लगकर भोजन लेने के लिए तैयार हो जाते थे । हालांकि उनको लाइन में लगकर भोजन लेना पहले से ही आ गया था क्यों कि ये हमारे इंचार्ज महोदय की देन थी कि उन्होंने बच्चों को अनुशासन में रहकर मध्यान्ह भोजन लेने की आदत डलवाई । मैंने भी बच्चों को कई बार लाइन लगाने हेतु प्रेरित किया । बच्चे भोजन तो लाइन में लगकर ले लेते थे लेकिन खाना खाते समय तितर-बितर होकर खाते थे । हमारे विद्यालय में भोजन हेतु किचन शेड नहीं था । कुछ बच्चे यहां बैठे कुछ वहां बैठे कुछ लाइब्रेरी में बैठकर कहा रहे कुछ अपनी कक्षा में । कोई अकेला बैठा कहा रहा कोई अपने दोस्त के साथ , कोई अपनी सहेली के साथ । कुछ बरामदे में । मैं भी इंचार्ज जी के साथ आफिस में कुर्सी पर बैठकर भोजन करता आखिर सर जी जो ठहरे । लेकिन बच्चों का इधर उधर खाना खाना अखरता था । कई बार उनको बरामदे में खाने के लिए मैंने बोला भी लेकिन एक दो दिन से ज्यादा वो मामला चलता न था । 



 


एक दिन मैंने भोजन की घंटी जैसे ही बजी मैंने कुछ बच्चों को बुलाया और कहा कि आज हम भी आप लोगों के साथ भोजन बैठकर करेंगे । सभी बच्चों में खबर आग की तरह फैल गयी कि आज एस पी सर भी हम लोगों के साथ खाएंगे । मैंने भी रसोईया दीदी से बोला और मैं भी लाइन में लग गया  ,खैर रसोईया दीदी नें मुझे भोजन नहीं दिया और बोलीं,"आप चलो , मैं आपका खाना लेकर आती हूँ ।" 

 



मैंने बच्चों के साथ मिलकर चटाइयां बिछवा दी थीं । पहले दिन मैं एक कोने में बैठा । सब बच्चे बड़े अनुशासित होकर भोजन करके उठ गए । मैं भी भोजन कर के उठ गया । मैंने सोंचा मेरा काम हो गया अब तो रोज ऐसे ही खाना खाएंगे । आखिर मेरा कार्य अब हो चुका था । मैं अपने कार्य में सफल हो गया था ।

About the author

Satya Pal Singh is an Academic Resource Person or a teacher educator in India. Any views expressed are personal.

Shilpi 4 year ago

Superb sir ,it smells the feeling of humanity and the virtue within you which makes you sit and had lunch with such blessed children who only need our love .At our one call they rush and do what is being told to do .A huge applause of salute to you for your friendly and caring deed.Continue with your great work best wishes.

Sunita Srivastava 4 year ago

great effort ,nice idea

Sunita Srivastava 4 year ago

great effort ,nice idea

Praveen Kumar 4 year ago

आप के द्वारा अनुशासन का पाठ हमे पूरी जिंदगी भर याद रहेगा ।आप का हर कार्य प्रेरणा दायीं होता है ।आप दुसरो के लिए भी प्रेरक है

Satya Pal Singh 4 year ago

Thanks Gurushala

Praveen Kumar 4 year ago

Nice

Shruti Srivastava 4 year ago

Really great effort