बात 2005 की है जब मेरी नई-नई पोस्टिंग बेसिक के विद्यालय में हुई थी | मैं पहले जीप , फिर लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर विद्यालय पहुँचती थी | बेसिक के विद्यालय में पढ़ाने से पहले मैं इंटर कॉलेज में पढ़ाती थी | पहले दिन जब मैं विद्यालय पहुंची तो वहां का हाल देख बेहाल हो गयी | कुछ बच्चे इधर-उधर खेल रहे तो कुछ सुस्त बैठे हुए थे | खैर कुछ देर बाद वहां की शिक्षामित्र आयीं और उन्होंने ने मुझे विद्यालय और सभी चीज़ों के बारे में बताया |
स्कूल में कुछ खास न कर पाने के कारण में हमेशा परेशान रहती | ऐसा लग रहा था की मैं फेल हो रही हूँ | हमारी स्कूल की इंचार्ज बिल्डिंग बनवा रही थी तो उनके दर्शन कभी-कभी या न के बराबर ही होते थे | बच्चों का हाल ये था कि न उनके पास पेंसिल थी न कॉपी थी और न स्लेट | खैर सकारात्मक सोंच होने वाली के कारण मैंने खुद ही कुछ पेंसिल , कॉपी खरीदी और कक्षा 1 और 2 के बच्चों में बाटीं | अब मैंने बच्चों को बिंदु जोड़-जोड़ कर आकृतियां बनाना , अपने बोलने के बाद बच्चों से शब्द दोहरवाना आदि सिखाया | कुछ बच्चे चल निकले और मैं खुश | पर अभी भी बात वही थी सबको समझ नई आता था | अब तक कक्षा 4 व 5 के छात्र भी आने लगे थे | उनको भी मैं यथा संभव पढ़ाती थी | पर सभी छात्रों को मेरे पढ़ाये हुए कांसेप्ट समझ नई आते थे | इसका कारण ढूँढा तो पाया : अनियमितता | बच्चे नियमित रूप से स्कूल आते ही नहीं थे | इसके लिए मैं बच्चों के अभिभावकों से फ़ोन से पर बात करने का प्रयास किया | कुछ ने समझा और कुछ ने नहीं | जैसे-तैसे समय बीता मैंने हमेशा बच्चों को अच्छे से अच्छा पढ़ाने का प्रयास किया |
समय के साथ मेरा प्रमोशन हुआ और मैंने जूनियर की सहायकी ली | मुझे अपने किये का प्रतिफल तब मिला जब साथ के जूनियर के हेड आकर कहने लगे की आप मेरे विद्यायल में आ जाये तो मुझे मेरे बच्चो का भविष्य बनता नजर आएगा | पर पैदल दूरी की वजह से मैं उनकी बात न मान सकी |
परेशानियाँ हैं पर रास्ते खुद बनाने हैं | जब हमने बेसिक में छलांग लगाई है तो हमें तैरना भी है और तैरना सिखाना भी है | क्योंकि-
"जिंदगी आसान नहीं होती , इसे आसान बनाना पड़ता हैं ||
कुछ अंदाज से , कुछ नज़र अंदाज से || "