जिसका बचपन नशे में जकड़ा हो , उसकी जवानी कैसी होगी ?
बुढ़ापा आएगा या नहीं, शायद नहीं।
वैसे नशे में आधी से पूरी आबादी तक जकड़ी नजर आती है।
ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं इससे अछूती नहीं रहीं और शहरी क्षेत्रों में तो हर दूसरा गरीब इसकी गिरफ्त में है ।
मलिन बस्तियों में तो नशा नाश करने की स्थिति में है।
शराब से होने वाले गृह क्लेशों में पढ़े लिखे मध्यमवर्गीय परिवारों की गृहस्थी में रिश्ते दरक रहे हैं तो तम्बाकू से कैंसर और अन्य बीमारियाँ घरों की आर्थिक बदहाली का सबब बनती जा रहीं हैं।
बात नशा मुक्ति और अभियान की है। मैं पेशे से शिक्षिका हूँ , इसलिए समाज का महत्वपूर्ण अंग होने का गौरव हासिल है। मैंने नशे को जीवन के जिस पड़ाव से शुरू होते देखा है, बात वहीं से करती हूँ।
बचपन नशे की गिरफ्त में तेजी से फंस रहा है। कामगार बच्चों में इसकी लत बढ़ रही है। परिवार को सहयोग करने के लिए खुद को काम में झोंकने वाले बच्चे विद्यालयों में जाने के स्थान पर दिन भर मेहनत मजदूरी करते हैं और थकान मिटाने और सुकून के लिए अनजाने में ही नशे की तरफ चले जाते हैं। तम्बाकू और ध्रूमपान इस नशे की शुरूआती श्रेणी है।
महानगरों की स्थिति में ये गरीब मजदूर बच्चे अन्य तरह के खतरनाक नशे की चपेट में आ रहे हैं।ये बच्चे इंक रिमूवर, आयोडेक्स मलहम , पंचर जोड़ने के ट्यूब तक से नशा करते हैं। पढ़े लिखे परिवारों के किशोरों में नशे का साधन कफ़ सिरप- कोरेक्स , टॉसेक्स भी बन चुके हैं। यह चीजें धीरे धीरे शरीर में नशे की मात्रा की माँग बढ़ाती हैं और इन बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है। शहरी क्षेत्र की गरीब बस्तियों में इन्हें रोकने वाले इनके अपने भी आगे आने को तैयार नहीं होते। अगर बच्चों के नशे की शिकायत परिवार से की जाए तो माता- पिता शिकायत को अनदेखा कर देते हैं क्योंकि बच्चा उन्हें पैसे कमाकर देता है अर्थात बालश्रमिकों की अपने परिवारों में एक वयस्क जैसी आज़ादी हो जाती है और वह ना तो बालक ही रहता है और ना ही वयस्क ही बन पाता है । ऐसी अधकुचली स्थिति में वह उद्देश्यहीन होकर केवल पेट की आग बुझाने और अपनी थकान को नशे से मिटाने के आगे कभी नही सोच पाता और इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समर्थ ना रह पाने की स्थिति में जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकता । इसलिए सीधे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि नशा समाज में अपराध का जनक होता है ।
बचपन को नशा मुक्त करने के लिए सार्थक प्रयास शिक्षकों और अभिभावकों के माध्यम से ही हो सकते हैं। कोमल मन पर किसी भी कार्यक्रम की छाप पड़ना आसान होती है और इसका उपयोग हमें करना होगा। बच्चों के पाठयक्रम में नशे जैसे विषय को सम्मिलित किया जाना चाहिए। आंगनवाड़ी और प्राथमिक स्कूलों से इसकी शुरूआत हो। बच्चों के स्कूलों में नशे से होने वाले नुकसानों के लिए जागरुकता के कार्यक्रम आयोजित हों और वीडियो और फोटो के जरिए इससे होने वाले नुकसानों के विषय में उनको पढ़ाया व बताया जाए।
ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतें बच्चों के भविष्य को नशे से बचाने के लिए जिम्मेदारी उठाएँ।
स्कूलों के आसपास नशे की दुकानों पर पाबंदी को लेकर सरकार से लेकर हाईकोर्ट तक के सभी प्रयास नाकाफी साबित होते नजर आते हैं, इसलिए इन्हें अमलीजामा पहनाने की सार्थक पहल हो। प्रशासन के अंग श्रम विभाग,बिजली का कनेक्शन और लाइसेंस देने वाले विभाग इसको सख्ती से लागू करवाएं । ऐसी दुकाने खुलने के बाद इन्हें हटाना आसान नहीं है, इसलिए व्यवस्था यह हो कि ये खुल ही न पाएं।
सार यह है कि जागरुकता की शुरूआत पहली कक्षा से हो, जिस से कोमल मन और शरीर में नशे के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न किया जा सके। समाजसेवी संगठन इसे केस स्टडी के रूप में लें और समस्या समाधान के लिए जुट जाएं | मेरा मानना है कि निश्चित रूप से इसके दूरगामी परिणाम सुखद आएंगे और एक 'नशामुक्त स्वस्थ युवा भारत' विकास के शिखर की ओर तीव्र गति से दौड़ता नज़र आएगा ।